अपनी सरलता के कारण हिंदी प्रवासी भाइयों की स्वत: राष्ट्रभाषा हो गई। - भवानीदयाल संन्यासी।
बंदर (बाल-साहित्य )  Click to print this content  
Author:अयोध्या सिंह उपाध्याय 'हरिऔध'

देखो लड़को !  बंदर आया ।
एक मदारी उसको लाया ॥
            
             कुछ
है उसका ढंग निराला ।
             कानों में है  उसके बाला ॥

फटे पुराने रंग बिरंगे ।
कपड़े उसके
हैं बेढंगे ॥

              मुँह डरावना आँखे छोटी ।
              लंबी दुम थोड़ी सी मोटी॥

भौंह कभी वह
है मटकाता ।
आँखों को है कभी नचाता ॥

              ऐसा कभी किलकिलाता है ।
              जैसे अभी काट खाता है ॥

दाँतों को है कभी दिखाता ।
कूद फाँद है कभी मचाता ॥

              कभी घुड़कता है मुँह बा कर ।
              सब लोगों को बहुत डराकर ॥

कभी छड़ी लेकर है चलता ।
है वह यों ही कभी मचलता ॥

               है सलाम को हाथ उठाता ।
               पेट लेट कर है दिखलाता ॥

ठुमक ठुमक कर कभी नाचता ।
कभी कभी है टके माँगता ॥

               सिखलाता है उसे मदारी ।
               जो जो बातें बारी बारी ॥  

वह सब बातें वह करता है ।
सदा उसी का दम भरता है ॥


                देखो बंदर सिखलाने से ।
               कहने सुनने समझाने से ॥

बातें बहुत सीख जाता है।
कई काम कर दिखलाता है ॥

                फिर लड़को, तुम मन देने पर ।
                भला क्या नहीं  सकते हो कर ॥

बनों आदमी तुम पढ़ लिखकर ।
नहीं एक तुम भी हो बंदर ॥

-अयोध्या सिंह उपाध्याय 'हरिऔध'

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