जब से हमने अपनी भाषा का समादर करना छोड़ा तभी से हमारा अपमान और अवनति होने लगी। - (राजा) राधिकारमण प्रसाद सिंह।
सुभाषचन्द्र - गयाप्रसाद शुक्ल 'सनेही' की कविता (विविध)  Click to print this content  
Author:भारत-दर्शन संकलन

तूफान जुल्मों जब्र का सर से गुज़र लिया
कि शक्ति-भक्ति और अमरता का बर लिया ।
खादिम लिया न साथ कोई हमसफर लिया,
परवा न की किसी की हथेली पर सर लिया ।
आया न फिर क़फ़स में चमन से निकल गया ।
दिल में वतन बसा के वतन से निकल गया ।।

बाहर निकल के देश के घर-घर में बस गया;
जीवट-सा हर जबाने-दिलावर में बस गया ।
ताक़त में दिल की तेग़ से जौर में बस गया;
सेवक में बस गया कभी अफसर में बस गया ।
आजाद हिन्द फौज का वह संगठन किया ।
जादू से अपने क़ाबू में हर एक मन किया ।।

ग़ुर्बत में सारे शाही के सामान मिल गये,
लाखों जवान होने को कुर्बान मिल गये ।
सुग्रीव मिल गये कहीं हनुमान् मिल गये
अंगद का पाँव बन गये मैदान मिल गये '
कलियुग में लाये राम-सा त्राता सुभाषचन्द्र ।
आजाद हिन्द फौज के नेता सुभाषचन्द्र ।।

हालांकि! आप गुम हैं मगर दिल में आप हैं
हर शख़्स की जुबान पै महफिल में आप हैं ।
ईश्वर ही जाने कौन-सी मन्जिल में आप हैं,
मँझधार में हैं या किसी साहिल में आप हैं ।
कहता है कोई, अपनी समस्या में लीन हैं ।
कुछ' कह रहे हैं, आप तपस्या में लीन हैं ।।

आजाद होके पहुँचे हैं सरदार आपके,
शैदा वतन के शेरे-बबर यार आपके,
बन्दे बने हैं काफिरो-दीदार आपके,
गुण गाते देश-देश में अखबार आपके ।।
है इन्तजार आप मिलें, पर खुले हुए ।
आँखों की तरह दिल्ली के हैं दर खुले हुए ।।


- गयाप्रसाद शुक्ल 'सनेही'

#
Poem Subhashchandra by Gaya Prasad Shukla Snehi

सुभाषचन्द्र - गयाप्रसाद शुक्ल सनेही की कविता

Previous Page  |  Index Page  |   Next Page
 
 
Post Comment
 
 
 

सब्स्क्रिप्शन

सर्वेक्षण

भारत-दर्शन का नया रूप-रंग आपको कैसा लगा?

अच्छा लगा
अच्छा नही लगा
पता नहीं
आप किस देश से हैं?

यहाँ क्लिक करके परिणाम देखें

इस अंक में

 

इस अंक की समग्र सामग्री पढ़ें

 

 

सम्पर्क करें

आपका नाम
ई-मेल
संदेश