जब से हमने अपनी भाषा का समादर करना छोड़ा तभी से हमारा अपमान और अवनति होने लगी। - (राजा) राधिकारमण प्रसाद सिंह।
हिंदी पत्रकारिता में भाषा की शुद्धता (विविध)    Print  
Author:रोहित कुमार 'हैप्पी' | न्यूज़ीलैंड
 

पत्रकारिता में भाषा की पकड़, शब्दों का चयन व प्रस्तुति बहुत महत्वपूर्ण है। पत्रकारिता में निःसंदेह समाचार की समझ, भाषा की शुद्धता व वाक्य विन्यास आवश्यक तत्व हैं।

यदि समाचारपत्रों की चर्चा करें तो भारत में सबसे अधिक पाठक वर्ग हिंदी के समाचारपत्रों का है। हिंदी मीडिया अपने विभिन्न माध्यमों के साथ बड़ी तेज़ी से आगे बढ़ रहा है।

समाचारपत्र, दूरदर्शन व रेडियो के अतिरिक्त अब इंटरनेट पर न्यू मीडिया की भी अहम भूमिका है। आज हिंदी के समाचारों पत्रों सहित अन्य हिंदी मीडिया में जिस भाषा का प्रयोग हो रहा है वह भाषा की पकड़, शब्दों के चयन व उनकी प्रस्तुति पर प्रश्न चिन्ह लगाते दिखाई देते हैं।

भाषा की शुद्धता की बात करें तो दैनिक हिंदी समाचार पत्रों के शीर्षकों में अंग्रेजी शब्दों की भरमार क्या सहज स्वीकार्य है? देखिए, कुछ शीर्षक:

"मुलायम पर धमकाने का आरोप लगाने वाले IPS को यूपी सरकार ने किया सस्पेंड"
[दैनिक भास्कर, 14 जुलाई 2015]

IIT रुड़की से निकाले गए छात्रों को एक मौका और
[नभाटा, 15 जुलाई 2015]

क्या किसी अंग्रेजी दैनिक पत्र के शीर्षक में भी कोई हिंदी का शब्द प्रकाशित किया जा सकता है? फिर यह खिचड़ी भाषा हिंदी मीडिया में ही क्यों?

अधिकतर पत्रों की भाषा प्रदूषित हो चुकी है लेकिन हिन्दी पत्रकारिता में जनसत्ता अपनी स्तरीय भाषा के लिए अब भी जाना जाता है। स्वर्गीय प्रभाष जोशी ने भाषा के प्रति चेतना जागृत करके जो परम्परा स्थापित की थी उसका निर्वाह जनसत्ता लगातार करती आ रही है।

स्वर्गीय डॉ० विद्यानिवास मिश्र जब नवभारत टाइम्स, दिल्ली के संपादक थे उस समय के किसी पत्र को उठाकर उसकी तुलना यदि आज के नभाटा की भाषा, शैली व स्तर से की जाए तो सहज ही अंतर स्पष्ट हो जाएगा। मिश्रजी अंग्रेजी के भी विद्वान थे परंतु वे हिंदी में अंग्रेजी शब्दों का प्रयोग बिलकुल नहीं करते थे।
आइए, हिंदी मीडिया के कुछ अन्य उदाहरण देखें:

दूरदर्शन के कार्यक्रम में प्रायः सुनने को मिलता है: - "बड़ा खौफनाक नज़ारा था।"

एक रेल दुर्घटना जिसमें कई लोग मारे गए व बहुत से घायल हुए, उस समय एक संवाददाता कह रहा था - "बहुत दर्दनाक नज़ारा है।"
क्या कोई खौफ़नाक दुर्घटना नज़ारा हो सकती है? क्या यहाँ 'नज़ारा' शब्द उपयुक्त है?
कई बार सुनने को मिलता है - "यहाँ एक स्थानीय बंदे ने कहा...." इत्यादि।

अनौपचारिक भाषा में 'बंदे' शब्द का उपयोग प्रायः होता है परंतु दूरदर्शन के प्रस्तुतकर्ता द्वारा 'व्यक्ति' के स्थान पर 'बंदा' कहा जाना भाषा की गरिमा को धूमिल करता है।
भाषा 'लचीली' होना या 'फूहड़' होना में बहुत बड़ा अंतर है। भाषा जितनी लचीली होगी उतनी समृद्ध होगी, उतना उसका विस्तार होगा। आज हमारी भाषा 'लचीलेपन' के नाम पर किस दिशा की ओर बढ़ रही है यह विचारणीय व चर्चा का विषय है।

अधिकतर लोग कहते हैं कि न तो शुद्ध हिंदी होनी चाहिए और न ही बहुत कठिन। यहाँ पर उनका तात्पर्य प्रायः 'क्लिष्ट' से होता है। उदाहरणतया यदि एक समाचार हो:

"प्रधानमंत्री ने नई लोहपथगामिनी को हरी झंडी दी।" यहाँ 'रेलगाड़ी' लिखने से किसी को परहेज करने की आवश्यकता नहीं चूंकि ऐसे कई शब्द हिंदी में समाहित हो चुके हैं।

जहाँ तक हिंदी भाषा में कठिन शब्दों की बात है तो आज तक किसी को किसी अंग्रेजी भाषी से यह कहते नहीं सुना कि आप बहुत कठिन अंग्रेजी बोलते/लिखते हैं बल्कि उसकी सराहना कि जाती है कि उनका स्तर ऊँचा है। फिर हिन्दी के साथ इससे विपरीत व्यवहार क्यों?

आज कई हिंदी समाचारपत्रों/चैनलों की भाषा हिंदी नहीं बल्कि हिंगलिश है।

हमारी यह हीन भावना कि हिंदी में अंग्रेजी मिलाने से स्तर ऊंचा हो जाता है पूर्णतया निराधार है। अमिताभ बच्चन के 'कौन बनेगा करोड़पति' की सफलता से तो सभी परिचित हैं। उनकी हिंदी कितनी धाराप्रवाह और प्रभावी होती है। क्या आपने अमिताभ बच्चन को कभी खिचड़ी भाषा का प्रयोग करते सुना? उनकी अंग्रेजी पर अच्छी पकड़ है लेकिन कभी उन्हें हिंदी में अंग्रेजी की घुसपैठ करते देखा-सुना नहीं। फिर हिंदी मीडिया को ऐसी कौनसी समस्या है कि अकारण अंग्रेजी का उपयोग उनके लिए अनिवार्य है!

हिंग्लिश ["हिन्दी तथा "इंग्लिश" का मिश्रण] की बात करें तो यह भाषा कर्ण प्रिय नहीं अर्थात सुनने में अच्छी नहीं लगती। अब किसी को अंग्रेजी पढ़ना-सुनना है तो उसके पास अंग्रेजी समाचारपत्र पढ़ने या अंग्रेजी चैनल देखने के विकल्प खुले है। हिंदी कहकर अंग्रेजी परोसने की क्या आवश्यकता है?

अंग्रेजी के जो शब्द आम बोलचाल की भाषा में समाहित हो चुके हैं उनके उपयोग से परहेज की आवश्यकता नहीं। कुछ अंग्रेजी के शब्द हमारी दिनचर्या में पूर्णतया सम्मिलित हो चुके हैं जैसे स्कूल, बस-स्टैंड, रेलवे स्टेशन, यूनिवर्सिटी, ट्रेन, मोबाइल, इंटरनेट इत्यादि। यदि आप देहली में कोई तिपहिया पकड़कर उसे 'देहली विश्वविद्यालय' जाने के लिए कहें तो शायद उसे समझ ही न आए परंतु 'देहली यूनिवर्सिटी' कहते ही समझ जाते हैं। यद्यपि 'यूनिवर्सिटी' अंग्रेजी शब्द है लेकिन यह सहजभाव से समय के साथ हमारी भाषा में समाहित हो गया है। यह भी हमारी कमी ही कही जा सकती है कि हम अपने कुछ हिंदी शब्दों को उतना लोकप्रिय नहीं बना सके जितने वही शब्द अंग्रेजी में लोकप्रिय हैं। सहजता से आये शब्द भाषा की समृद्धि ही कर रहे हैं लेकिन समाचार-पत्रों व हिंदी सिनेमा में अंग्रेजी शब्दों की जबरन घुसपैठ तो भाषा-प्रदूषण ही कही जा सकती है।

हमारे हिंदी सिनेमा ने 'हिंदी' के प्रचार-प्रसार में भरपूर योगदान दिया है। देश-विदेश में बहुत से ग़ैर-भारतीय लोगों ने हिंदी सिनेमा के माध्यम से ही बोलचाल की हिंदी सीखी है। वर्तमान में हिंदी सिनेमा जगत अंग्रेजी नाम से सिनेमा बनाने में बहुत दिलचस्पी ले रहा है - 'जब वी मैट', ‘माई नेम इज़ खान', 'थ्री इडिएट्स', 'काइट्स', बॉडीगार्ड' इत्यादि जैसे कुछ नाम उल्लेखनीय हैं। हिंदी सिनेमा का अंग्रेजी नाम होने का औचित्य समझ से परे है। क्या हमारी भाषा दिवालिया हो गई है? हिंदी सिनेमा में ये अंग्रेजी नाम सहजभाव से नहीं आए बल्कि इन्हें थोपा गया है। किसी अन्य भाषा में ऐसी घुसपैठ देखने को नहीं मिलती।

'दिवस' शब्द शब्दकोश से लुप्तप्राय: हो चला है। अब दिवस के स्थान पर 'डे' मनने लगा है जैसे 'हिंदी डे', 'इंडिपेंडेंस डे', 'रिपब्लिक डे', 'बर्थ डे' इत्यादि। अब यदि इन्हें 'हिंदी दिवस', 'स्वतंत्रता दिवस', 'गणतंत्र दिवस', 'जन्म दिवस', कहा/लिखा जाए तो इसमें किस प्रकार की दुविधा है?

जहाँ तक हिंग्लिश का प्रश्न है यदि प्रकाशन समूह को लगता है कि 'हिग्लिश' इतनी लोकप्रिय है कि इसका उपयोग एक आवश्यकता बन गया है तो वे इसे 'हिग्लिश' पत्र के रूप में ही प्रस्तुत करें, इसे हिंदी कहने की क्या आवश्यकता है? वैसे भी जब समाचारपत्र का पंजीकरण करवाते हैं तो नाम के साथ घोषणापत्र में इस बात की भी जानकारी देते हैं कि यह पत्र किस भाषा में निकलेगा। वहाँ भाषा 'हिंदी' घोषित करने के पश्चात प्रकाशन 'हिंगलिश' में करना अनुचित ही कहा जाएगा। सरल भाषा का प्रयोग करते हुए भी निःसंदेह प्रकाशन/प्रसारण का स्तर, शैली व प्रस्तुति पठनीय/रोचक/कर्णप्रिय रखी जा सकती है।

भाषा के विकास व वैभव के लिए हमारे प्रकाशन समूहों, संपादकों, पत्रकारों व सरकार को आगे आने की आवश्यकता है। हमें आत्म-निरीक्षण, आत्म-विश्लेषण के अतिरिक्त अपना उत्तरदायित्व भलीभांति समझना होगा। यदि मीडिया समूह अपने निजी हितों के लिए भाषा को प्रदूषित करके थोपने पर आमादा है तो उनका विरोध अनिवार्य है।

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- रोहित कुमार 'हैप्पी'
  न्यूज़ीलैंड

 

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प्रकाशन जहाँ यह आलेख प्रकाशित है:

'विश्व हिंदी पत्रिका', 2016 : विश्व हिंदी सचिवालय, मॉरीशस की वार्षिक पत्रिका में प्रकाशित
हिंदी पत्रकारिता में भाषा की शुद्धता - पीडीएफ फ़ाइल उपलब्ध

© Rohit Kumar 'Happy',  2015

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