जब से हमने अपनी भाषा का समादर करना छोड़ा तभी से हमारा अपमान और अवनति होने लगी। - (राजा) राधिकारमण प्रसाद सिंह।
नये बरस में  (काव्य)    Print  
Author:रोहित कुमार 'हैप्पी' | न्यूज़ीलैंड
 

नये बरस में कोई बात नयी चल कर लें
तुम ने प्रेम की लिखी है कथायें तो बहुत
किसी बेबस के दिल की 'आह' जाके चल सुन लें
तू अगर साथ चले जाके उसका ग़म हर लें
नये बरस में कोई बात नयी चल कर लें.....

नये बरस की दावतें हैं, जश्न हैं मनते
शहर की रोशनी में गुम हैं सभी अपने में
कई घरों में मगर चूल्हे तक नहीं जलते
वहाँ अँधेरा है, चल! जाके रोशनी कर दें
नये बरस में कोई बात नयी चल कर लें.....

नये बरस में तमन्नाएं तो नई उभरेंगी
तमन्ना अपनी में थोड़ी-सी कटौती करके
ज़रूरत चल किसी इंसान की पूरी कर दें
नये बरस में कोई बात नयी चल कर लें.....

वो बरस बीत गया, ये भी चला जाएगा
उठ! आज ही शुरूआत नयी हम कर लें
करम करें हम, बात ही न बात करें
नये बरस में कोई बात नयी चल कर लें.....

अपने बच्चों को मोहब्बत तो सभी करते हैं,
बस ख़ुद के लिए जीते हैं औ' मरते हैं,
क्या बेसहारा किसी सिर पे हाथ धरते हैं?
नये बरस में कोई बात नयी चल कर लें.....

किसी ग़मग़ीन का चल आज जाके ग़म हर लें
कि, इक नयी रिवायत का उठके दम भर लें
अपनी छोड़! दूजों के लिए जी लें, दूजों के लिए मर लें
नये बरस में कोई बात नयी चल कर लें.....

- रोहित कुमार 'हैप्पी'

 

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