जब से हमने अपनी भाषा का समादर करना छोड़ा तभी से हमारा अपमान और अवनति होने लगी। - (राजा) राधिकारमण प्रसाद सिंह।
हर बार | सुशांत सुप्रिय की कविता (काव्य)    Print  
Author:सुशांत सुप्रिय
 

हर बार
अपनी तड़पती छाया को
अकेला छोड़ कर
लौट आता हूँ मैं
जहाँ झूठ है , फ़रेब है , बेईमानी है , धोखा है --
हर बार अपने अस्तित्व को खींच कर
ले आता हूँ दर्द के इस पार
जैसे-तैसे एक नई शुरुआत करने

कुछ नए पल चुरा कर
फिर से जीने की कोशिश में
हर बार ढहता हूँ , बिखरता हूँ

किंतु हर हत्या के बाद
 वहीं से जी उठता हूँ
जहाँ से मारा गया था
जहाँ से तोड़ा गया था
वहीं से घास की नई पत्ती-सा
 फिर से उग आता हूँ

शिकार किए जाने के बाद भी
हर बार एक नई चिड़िया बन जाता हूँ
एक नया आकाश नापने के लिए ...


- सुशांत सुप्रिय
 मार्फ़त श्री एच.बी. सिन्हा
 5174 , श्यामलाल बिल्डिंग ,
 बसंत रोड,( निकट पहाड़गंज ) ,
 नई दिल्ली - 110055
मो: 9868511282 / 8512070086
ई-मेल : sushant1968@gmail.com

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