अपनी सरलता के कारण हिंदी प्रवासी भाइयों की स्वत: राष्ट्रभाषा हो गई। - भवानीदयाल संन्यासी।
परिचित | लघु-कथा (कथा-कहानी)    Print  
Author:डॉ रामनिवास मानव | Dr Ramniwas Manav
 

बस में छूट जाने के कारण, पुलिस ने उसका सामान, अपने कब्ज़े में ले लिया था। अब, किसी परिचित आदमी की ज़मानत के बाद ही, वह सामान उसे मिल सकता था।

“मेरी पत्नी सख़्त बीमार है। मेरा जल्दी घर पहुंचना बहुत ज़रूरी है होल्दार सा’ब !” उसने विनती की।

“भई, कह तो दिया, किसी जानकार आदमी को ढूंढकर ले आओ और ले जाओ अपना सामान।”

“मैं तो परदेसी आदमी हूं। सा’ब, दो सौ मील दूर के शहर में कौन मिलेगा मुझे जानने वाला !”

“यह हम नहीं जानते। देखो, यह तो कानूनी ख़ाना-पूर्ति है। बिना ख़ाना-पूर्ति किये हम सामान तुम्हें कैसे दे सकते हैं ?”

वह समझ नहीं पा रहा था कि ख़ाना-पूर्ति कैसे हो ।

कुछ सोचकर, उसने दस रुपये का नोट निकाला और चुपके-से, कॉन्स्टेबुल की ओर बढा दिया। नोट को जेब में खिसकाकर, उसे हल्की-सी डांट पिलाते हुए, कॉन्स्टेबुल ने कहा- “तुम शरीफ़ आदमी दिखते हो, इसलिए सामान ले जाने देता हूं। पर फिर ऐसी ग़लती मत करना, समझे !”

दस के नोट ने, कॉन्स्टेबुल को ही, परिचित बना दिया था।

- डॉ रामनिवास मानव
 (वीणा: दिसम्बर, 1979)

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