आशा भोंसले का तमाचा  (विविध)    Print  
Author:डॉ. वेदप्रताप वैदिक | Dr Ved Pratap Vaidik
 

आशा भोंसले और तीजन बाई ने दिल्लीवालों की लू उतार दी। ये दोनों देवियाँ 'लिम्का बुक ऑफ रेकार्ड' के कार्यक्रम में दिल्ली आई थीं। संगीत संबंधी यह कार्यक्रम पूरी तरह अँग्रेज़ी में चल रहा था। यह कोई अपवाद नहीं था। आजकल दिल्ली में कोई भी कार्यक्रम यदि किसी पांच-सितारा होटल या इंडिया इंटरनेशनल सेंटर जैसी जगहों पर होता है तो वहां हिंदी या किसी अन्य भारतीय भाषा के इस्तेमाल का प्रश्न ही नहीं उठता। इस कार्यक्रम में भी सभी वक्तागण एक के बाद एक अँग्रेज़ी झाड़ रहे थे। मंच संचालक भी अँग्रेज़ी बोल रहा था।

जब तीजनबाई के बोलने की बारी आई तो उन्होंने कहा कि यहां का माहौल देखकर मैं तो डर गई हूं। आप लोग क्या-क्या बोलते रहे, मेरे पल्ले कुछ नहीं पड़ा। मैं तो अँग्रेज़ी बिल्कुल भी नहीं जानती। तीजनबाई को सम्मानित करने के लिए बुलाया गया था लेकिन जो कुछ वहां हो रहा था, वह उनका अपमान ही था लेकिन श्रोताओं में से कोई भी उठकर कुछ नहीं बोला। तीजनबाई के बोलने के बावजूद कार्यक्रम बड़ी बेशर्मी से अँग्रेज़ी में ही चलता रहा। इस पर आशा भोंसले झल्ला गईं। उन्होंने कहा कि मुझे पहली बार पता चला कि दिल्ली में सिर्फ अँग्रेज़ी बोली जाती है। लोग अपनी भाषाओं में बात करने में भी शर्म महसूस करते हैं। उन्होंने कहा मैं अभी लंदन से ही लौटी हूं। वहां लोग अँग्रेज़ी में बोले तो बात समझ में आती है लेकिन दिल्ली का यह माजरा देखकर मैं दंग हूं। उन्होंने श्रोताओं से फिर पूछा कि आप हिंदी नहीं बोलते, यह ठीक है लेकिन आशा है, मैं जो बोल रही हूं, उसे समझते तो होंगे? दिल्लीवालों पर इससे बड़ी लानत क्या मारी जा सकती थी?

इसके बावजूद जब मंच-संचालक ने अँग्रेज़ी में ही आशाजी से आग्रह किया कि वे कोई गीत सुनाएँ तो उन्होंने क्या करारा तमाचा जमाया? उन्होंने कहा कि यह कार्यक्रम कोका कोला कंपनी ने आयोजित किया है। आपकी ही कंपनी की कोक मैंने अभी-अभी पी है। मेरा गला खराब हो गया है। मैं गा नहीं सकती।

क्या हमारे देश के नकलची और गुलाम बुद्धिजीवी आशा भोंसले और तीजनबाई से कोई सबक लेंगे? ये वे लोग हैं, जो मौलिक है और प्रथम श्रेणी के हैं जबकि सड़ी-गली अँग्रेज़ी झाड़नेवाले हमारे तथाकथित बुद्धिजीवियों को पश्चिमी समाज नकलची और दोयम दर्जे का मानता है। वह उन्हें नोबेल और बुकर आदि पुरस्कार इसलिए भी दे देता है कि वे अपने-अपने देशों में अँग्रेज़ी के सांस्कृतिक साम्राज्यवाद के मुखर चौकीदार की भूमिका निभाते रहें। उनकी जड़ें अपनी जमीन में नीचे नहीं होतीं, ऊपर होती हैं। वे चमगादड़ों की तरह सिर के बल उलटे लटके होते हैं। आशा भोंसले ने दिल्लीवालों के बहाने उन्हीं की खबर ली है।

 

dr.vaidik@gmail.com
फरवरी 2012
ए-19, प्रेस एनक्लेव, नई दिल्ली-17, 
फोन (निवास) 2651-7295, मो. 98-9171-1947

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क्या आप डॉ. वेदप्रताप वैदिक के विचारों व उनके सुझावों से सहमत हैं? क्या आप इस बारे में कुछ कहना चाहते हैं?

यह अँग्रेज़ी का मोह लोगों के सिर से उतरता क्यों नहीं? तीजन बाई और आशाजी के आग्रह के बाद भी संयोजक और संचालक के सिर पर जूं तक न रेंगी! क्या अँग्रेज़ी का भूत केवल इन्हीं लोगों के सिर पर सवार था या यह हम सब के सिर पर सवार है? क्या हमारे देश की सरकार हिंदी को उसका न्यायोचित स्थान देती है? हिंदी के कारण प्रसिद्धि और धन-दौलत पाने वाले हमारे नेता/अभिनेता क्यों अँग्रेज़ी के बाहुपाश से मुक्त नहीं हो पाते? क्यों कल तक हिंदी बोलने वाला आम आदमी नेता/अभिनेता बनते ही अँग्रेज़ी हो जाता है? क्या हम दिल से हिंदी को उसका उचित स्थान दिलाना चाहते हैं? कौन देगा हिंदी को हिंदी का स्थान? आप स्वयं से प्रश्न करें - आप के बच्चे किन स्कूलों में पढ़ते हैं? हिंदी में उनके अंक कैसे हैं? क्या हमारे देश के नेता, अभिनेता, लेखक, कवि, पत्रकार, बुद्धिजीवी के बच्चे हिंदी पढ़ रहे हैं या वे विदेश में पल/पढ़ रहे हैं ? भारतीय राजदूत व उच्चायुक्त कार्यालयों में हिंदी की स्थिति क्या है?

यह कुछ प्रश्न हैं जिनका उत्तर तलाशने के लिए आपको कहीं दूर जाने की आवश्यकता नहीं, आप स्वयं ही बड़ी सरलता से इनका उत्तर दे देंगे। कैसे हो अपनी हिंदी का उद्धार? क्या किया जाए? आपके पास कोई समाधान या सुझाव है जो आप साझा करना चाहेंगे?

 

  • अपने विचार केवल तभी दें यदि आप का कर्म उनसे मेल खाता हो - हाथी दांत वाले लोग कृपया क्षमा करें!
  • कृपया भाषणबाज, सत्ता लोलुप व सस्ती प्रसिद्धि के इच्छुक क्षमा करें।
  • क्या आप आज के इस परिवेश, सामाजिक ढांचे और जीवन में परिवर्तन चाहते हैं? क्या किया जाए?

 

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