देशभाषा की उन्नति से ही देशोन्नति होती है। - सुधाकर द्विवेदी।
हिन्दी भाषा का भविष्य  (विविध)    Print  
Author:गणेशशंकर विद्यार्थी | Ganesh Shankar Vidyarthi
 

[ हिन्दी साहित्य सम्मेलन के गोरखपुर अधिवेशन में अध्यक्ष पद से दिये हुए भाषण का कुछ अंश ]

". .हिन्दी भाषा और हिन्दी साहित्य का भविष्य बहुत बड़ा है । उसके गर्भ में निहित भवितव्यताएँ इस देश और उसकी भाषा द्वारा संसारभर के रंगमंच पर एक विशेष अभिनय कराने वाली हैं । मुझे तो ऐसा भासित होता है कि संसार की कोई भी भाषा मनुष्य-जाति को उतना ऊँचा उठाने, मनुष्य को यथार्थ में मनुष्य बनाने और संसार को सुसभ्य और सद्भावनाओं से युक्त बनाने में उतनी सफल नहीं हुई, जितनी कि आगे चलकर हिन्दी भाषा होने वाली है । हिन्दी को अपने पूर्व-संचित पुण्य का बल है । संसार के बहुत बड़े विशाल खण्ड में सर्वथा अन्धकार था लोग अज्ञान और अधर्म में डूबे हुए थे, विश्व-बन्धुत्व और लोक-कल्याण का भाव भी उनके मन में उदय नहीं हुआ था, उस समय जिस प्रकार इस देश से सुदूर देश-देशान्तरों में फैलकर बौद्ध-भिक्षुओं ने बडे-बड़े देशों से लेकर अनेकानेक उपत्याकाओं, पठारों और तत्कालीन पहुँच से बाहर गिरि-गुहाओं और समुद्रतटों तक धर्म और अहिंसा का सन्देश पठाया था उसी प्रकार अदूर भविष्य में उन पुनीत सन्देश-वाहकों की सन्तति संस्कृत और पाली की अग्रजा हिन्दी द्वारा भारतवर्ष और उसकी संस्कृति के गौरव का सन्देश एशिया महाखण्ड के प्रत्येक मन्त्रणास्थल में, एशियाई महासंघ के प्रत्येक रंगमंच पर सुनाएगी । मुझे तो वह दिन दूर नहीं दिखाई देता, जब हिन्दी साहित्य अपने सौष्ठव के कारण जगत-साहित्य में अपना विशेष स्थान प्राप्त करेगा और हिन्दी, भारतवर्ष-ऐसे विशाल देश की राष्ट्रभाषा की हैसियत से न केवल एशिया महाद्वीप के राष्ट्रों की पंचायत में, किन्तु संसारभर के देशों की पंचायत में एक साधारण भाषा के समान न केवल बोली भर जाएगी किन्तु अपने बल से संसार की बड़ी-बड़ी समस्याओं पर भरपूर प्रभाव डालेगी और उसके कारण अनेक अन्तर्राष्ट्रीय प्रश्न बिगड़ा और बना करेंगे । संसार की अनेक भाषाओं के इतिहास, धमनियों में बहने वाले ठण्डे रक्त को उष्ण कर देने वाली उन मार्मिक घटनाओं से भरे पड़े हैं, जो उनके अस्तित्व की रक्षा के लिए घटित हुई । फांस की- किरचों की नोंक छाती पर गड़ी हुई होने पर भी रूर प्रान्त के जर्मनों ने अपनी मातृ-भाषा के न छोड़ने की दृढ प्रतिज्ञा की और उसका अक्षर-अक्षर पालन किया । कनाडा के फ्रांसीसियों का अपनी मातृ-भाषा के लिए प्रयत्न करना किसी समय अपराध था किन्तु घमण्डी मनुष्यों के बनाये हुए इस क़ानून का मातृ-भाषा के भक्तों ने सदा उल्लंघन किया । इटली, आस्ट्रेलिया के छीने हुए भूप्रदेशों के गले के नीचे ज़बर्दस्ती अपनी भाषा उतारना चाहती थी, किन्तु वह अपनी समस्त शक्ति से भी मातृ-भाषा के प्रेमियों को न दबा सकी । आस्ट्रिया ने हंगरी को पद-दलित करके उसकी भाषा का भी नाश करना चाहा, किन्तु आस्ट्रिया-निर्मित राज-सभा में बैठकर हंगरी वालों ने अपनी भाषा के अतिरिक्त दूसरी भाषा में बोलने से इन्कार कर दिया था । दक्षिण अफ्रीका के जनरल बोथा ने केवल इस बात के सिद्ध करने के लिए कि उनका देश विजित हुआ और न उनकी आत्मा ही, बहुत अच्छी अंग्रेज़ी जानते हुए भी बादशाह जार्ज से साक्षात् होने पर अपनी मातृ-भाषा 'डच' भाषा में ही बोलना आवश्यक समझा, और एक दुभाषिया उनके तथा बादशाह के बीच में काम करता था यद्यपि हिन्दी के अस्तित्व पर अब इस प्रकारके खुले प्रहार नहीं होते, किन्तु उन ढंके-मुंदे प्रहारों की कमी भी नहीं है, जो उस पर, और इस प्रकार देश की सुसंस्कृति पर, विजय प्राप्त करना चाहते हैं । साहस के साथ और उस अगाध विश्वास के साथ जो हमें हिन्दी भाषा और उसके साहित्य के परमोज्ज्वल भविष्यत् पर है, हमें इस प्रकार के प्रहारों का सामना करना चाहिए, और जितने बल और क्रियाशीलता के साथ हम ऐसा करेंगे, उतनी द्रुत गति के साथ हम अपनी भाषा की त्रुटियों को दूर करेंगे और उसे 82? करोड़ व्यक्तियों की राष्ट्रभाषा के समान बलशाली और गौरवयुक्त बनाएँगे, उतना ही शीघ्र हमारे साहित्य-सूर्य की रश्मियाँ दूर-दूर तक समस्त देशों में पड़कर भारतीय संस्कृति, ज्ञान और कला का सन्देश पहुँचाएँगी, उतनी ही शीघ्र हमारी भाषा में दिये गए भाषण संसार की विविध रंग-स्थलियों में गुंजरित होने लगेंगे और उससे मनुष्य-जाति मात्र की गति-मति पर प्रभाव पड़ता हुआ दिखलाई देगा, और उतने ही शीघ्र एक दिन और उदय होगा और वह होगा तब, जब देश के प्रतिनिधि उसी प्रकार, जिस प्रकार आयरलैण्ड के प्रतिनिधियों ने इंग्लैण्ड से अन्तिम सन्धि करते और स्वाधीनता प्राप्त करते समय अपनी विस्मृत भाषा गैलिक में सन्धि-पत्र पर हस्ताक्षर किये थे, भारतीय स्वाधीनता के किसी स्वाधीनता-पत्र पर हिन्दी भाषा में और नागरी अक्षरों में अपने हस्ताक्षर करते हुए दिखाई देगे ।"

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साभार - गणेश शंकर विद्यार्थी के श्रेष्ठ निबंध
गणेश शंकर विद्यार्थी स्मारक शिक्षा समिति, कानपुर

 

 

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