यदि पक्षपात की दृष्टि से न देखा जाये तो उर्दू भी हिंदी का ही एक रूप है। - शिवनंदन सहाय।
 

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भारतेन्दु हरिश्चन्द्र की ग़ज़ल

आ गई सर पर क़ज़ा लो सारा सामाँ रह गया ।
ऐ फ़लक क्या क्या हमारे दिल में अरमाँ रह गया ॥

बाग़बाँ है चार दिन की बाग़े आलम में बहार ।
फूल सब मुरझा गए ख़ाली बियाबाँ रह गया ॥

इतना एहसाँ और कर लिल्लाह ऐ दस्ते जनूँ ।
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स्वर्ग में विचार-सभा का अधिवेशन

स्‍वामी दयानन्‍द सरस्‍वती और बाबू केशवचन्‍द्रसेन के स्‍वर्ग में जाने से वहां एक बहुत बड़ा आंदोलन हो गया। स्‍वर्गवासी लोगों में बहुतेरे तो इनसे घृणा करके धिक्‍कार करने लगे और बहुतेरे इनको अच्‍छा कहने लगे। स्‍वर्ग में भी 'कंसरवेटिव' और 'लिबरल' दो दल हैं। जो पुराने जमाने के ऋषि-मुनि यज्ञ कर-करके या तपस्‍या करके अपने-अपने शरीर को सुखा-सुखाकर और पच-पचकर मरके स्‍वर्ग गए हैं उनकी आत्‍मा का दल 'कंसरवेटिव' है, और जो अपनी आत्‍मा ही की उन्नति से और किसी अन्‍य सार्वजनिक उच्‍च भाव संपादन करने से या परमेश्‍वर की भक्ति से स्‍वर्ग में गए हैं वे 'लिबरल' दलभक्‍त हैं। वैष्‍णव दोनों दल के क्‍या दोनों से खारिज थे, क्योंकि इनके स्‍थापकगण तो लिबरल दल के थे किं‍तु ये लोग 'रेडिकल्‍स' क्‍या महा-महा रेडिकल्‍स हो गए हैं। बिचारे बूढ़े व्‍यासदेव को दोनों दल के लोग पकड़-पकड़ कर ले जाते और अपनी-अपनी सभा का 'चेयरमैन' बनाते थे, और व्‍यास जी भी अपने प्राचीन अव्यवस्थित स्‍वभाव और शील के कारण जिसकी सभा में जाते थे वैसी ही वक्‍तृता कर देते थे। कंसरवेटिवों का दल प्रबल था; इसका मुख्‍य कारण यह था कि स्‍वर्ग के जमींदार इन्‍द्र, गणेश प्रभृति भी उनके साथ योग देते थे, क्योंकि बंगाल के जमींदारों की भांति उदार लोगों की बढ़ती से उन बेचारों को विविध सर्वोपरि बलि और मान न मिलने का डर था।

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हरिद्वार यात्रा

श्रीमान क.व.सु. संपादक महोदयेषु!

श्री हरिद्वार को रुड़की के मार्ग से जाना होता है। रुड़की शहर अँग्रेज़ों का बसाया हुआ है। इसमें दो-तीन वस्तु देखने योग्य हैं, एक तो (कारीगरी) शिल्प विद्या का बड़ा कारख़ाना है जिसमें जलचक्की पवनचक्की और भी कई बड़े-बड़े चक्र अनवरत स्वचक्र में सूर्य, चंद्र, पृथ्वी, मंगल आदि ग्रहों की भाँति फिरा करते हैं और बड़ी-बड़ी धरन ऐसी सहज में चिर जाती हैं कि देखकर आश्चर्य होता है। बड़े-बड़े लोहे के खंभे कल से एक छड़ में ढल जाते हैं और सैकड़ों मन आटा घड़ीभर में पिस जाता है, जो बात है आश्चर्य है। इस कारख़ाने के सिवा यहाँ सबसे आश्चर्य श्री गंगा जी की नहर है। पुल के ऊपर से तो नहर बहती है और नीचे से नदी बहती है। यह एक बड़े आश्चर्य का स्थान है। इसके देखने से शिल्प विद्या का बल और अँग्रेज़ों का चातुर्य् और द्रव्य का व्यय प्रगट होता है। न जाने वह पुल कितना दृढ़ बना है कि उस पर से अनवरत कई लाख मन, वरन करोड़ मन जल बहा करता है और वह तनिक नहीं हिलता। स्थल में जल कर रखा है। और स्थानों में पुल के नीचे से नाव चलती है, यहाँ पुल के ऊपर नाव चलती है और उसके दोनों ओर गाड़ी जाने का मार्ग है और उस के परले सिरे पर चूने के सिंह बहुत ही बड़े-बड़े बने हैं। हरिद्वार का एक मार्ग इसी नहर की पटरी पर से है और मैं इसी मार्ग से गया था।

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