अपनी सरलता के कारण हिंदी प्रवासी भाइयों की स्वत: राष्ट्रभाषा हो गई। - भवानीदयाल संन्यासी।
 

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ख़ून की होली जो खेली

रँग गये जैसे पलाश;
कुसुम किंशुक के, सुहाए,
कोकनद के पाए प्राण,
ख़ून की होली जो खेली ।

निकले क्या कोंपल लाल,
फाग की आग लगी है,
फागुन की टेढ़ी तान,
ख़ून की होली जो खेली ।

खुल गई गीतों की रात,
किरन उतरी है प्रात की;
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बापू, तुम मुर्गी खाते यदि | कविता | सूर्यकांत त्रिपाठी 'निराला'

बापू, तुम मुर्गी खाते यदि
तो क्या भजते होते तुमको
ऐरे-ग़ैरे नत्थू खैरे - ?
सर के बल खड़े हुए होते
हिंदी के इतने लेखक-कवि?

बापू, तुम मुर्गी खाते यदि
तो लोकमान्य से क्या तुमने
लोहा भी कभी लिया होता?
दक्खिन में हिंदी चलवाकर
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जूही की कली

[निराला की प्रथम काव्य कृति]

विजन-वन-वल्लरी पर
सोती थी सुहाग-भरी--स्नेह-स्वप्न-मग्न--
अमल-कोमल-तनु तरुणी--जुही की कली,
दृग बन्द किये, शिथिल--पत्रांक में,
वासन्ती निशा थी;
विरह-विधुर-प्रिया-संग छोड़
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पद्मा और लिली | कहानी

'लिली' कहानी-संग्रह कथानक-साहित्य में निराला का प्रथम प्रयास था। निरालाजी ने इसकी भूमिका में लिखा है -"यह कथानक-सहित्य में मेरा पहला प्रयास है। मुझसे पहलेवाले हिंदी के सुप्रसिद्ध कहानी-लेखक इस कला को किस दूर उत्कर्ष तक पहुँचा चुके हैं, मैं पूरे मनोयोग से समझने का प्रयत्न करके भी नहीं समझ सका। समझता, तो शायद उनसे पर्याप्त शक्ति प्राप्त कर लेता, और पतन के भय से इतना न घबराता। अत: अब मेरा विश्वास केवल 'लिली' पर है, जो यथा-स्वभाव अधखिली रहकर अधिक सुगंध देती है।"

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ध्वनि

अभी न होगा मेरा अंत
अभी-अभी ही तो आया है
मेरे वन में मृदुल वसंत-
अभी न होगा मेरा अंत।

हरे-हरे ये पात,
डालियाँ, कलियाँ, कोमल गात।
मैं ही अपना स्वप्न-मृदुल-कर
फेरूँ गा निद्रित कलियों पर
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बाँधो न नाव इस ठाँव, बंधु

बाँधो न नाव इस ठाँव, बंधु!
पूछेगा सारा गाँव, बंधु!

यह घाट वही जिस पर हँसकर,
वह कभी नहाती थी धँसकर,
आँखें रह जाती थीं फँसकर,
कँपते थे दोनों पाँव बंधु!

वह हँसी बहुत कुछ कहती थी,
फिर भी अपने में रहती थी,
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स्नेह-निर्झर बह गया है | सूर्यकांत त्रिपाठी 'निराला'

स्नेह-निर्झर बह गया है
रेत ज्यों तन रह गया है।

आम की यह डाल जो सूखी दिखी,
कह रही है--अब यहाँ पिक या शिखी,
नहीं आते; पंक्ति मैं वह हूँ लिखी
नहीं जिसका अर्थ--
जीवन दह गया है।

दिये हैं मैने जगत को फूल-फल,
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