कविताएं
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मुक्तिबोध की हस्तलिपि में कविता - गजानन माधव मुक्तिबोध | Gajanan Madhav Muktibodh


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मैं तो वही खिलौना लूँगा - सियाराम शरण गुप्त | Siyaram Sharan Gupt
'मैं तो वही खिलौना लूँगा'
मचल गया दीना का लाल -
'खेल रहा था जिसको लेकर
राजकुमार उछाल-उछाल ।'

व्यथित हो उठी माँ बेचारी -
'था सुवर्ण - निर्मित वह तो !
खेल इसी से लाल, - नहीं है
राजा के घर भी यह तो ! '

राजा के घर ! नहीं नहीं माँ
तू मुझको बहकाती है ,
इस मिट्टी से खेलेगा क्यों
राजपुत्र तू ही कह तो । '

फेंक दिया मिट्टी में उसने
मिट्टी का गुड्डा तत्काल ,
'मैं तो वही खिलौना लूँगा' -
मचल गया दीना का लाल

' मैं तो वही खिलौना लूँगा '
मचल गया शिशु राजकुमार , -
वह बालक पुचकार रहा था
पथ में जिसको बारबार |

' वह तो मिट्टी का ही होगा ,
खेलो तुम तो सोने से '
दौड़ पड़े सब दास - दासियाँ
राजपुत्र के रोने से

' मिट्टी का हो या सोने का ,
इनमें वैसा एक नहीं ,
खेल रहा था उछल - उछल कर
वह तो उसी खिलौने से '

राजहठी ने फेंक दिए सब
अपने रजत - हेम - उपहार ,
' लूँगा वही , वही लूँगा मैं ! '
मचल गया वह राजकुमार

- सियारामशरण गुप्त

[ साभार - जीवन सुधा ]

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आपकी हँसी  - रघुवीर सहाय | Raghuvir Sahay

निर्धन जनता का शोषण है
कह कर आप हँसे
लोकतंत्र का अंतिम क्षण है
कह कर आप हँसे
सबके सब हैं भ्रष्टाचारी
कह कर आप हँसे
चारों ओर बड़ी लाचारी
कह कर आप हँसे
कितने आप सुरक्षित होंगे
मैं सोचने लगा
सहसा मुझे अकेला पा कर
फिर से आप हँसे
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राष्ट्रगीत में भला कौन वह - रघुवीर सहाय | Raghuvir Sahay

राष्ट्रगीत में भला कौन वह
भारत-भाग्य विधाता है
फटा सुथन्ना पहने जिसका
गुन हरचरना गाता है।
मख़मल टमटम बल्लम तुरही
पगड़ी छत्र चंवर के साथ
तोप छुड़ाकर ढोल बजाकर
जय-जय कौन कराता है।
पूरब-पच्छिम से आते हैं
नंगे-बूचे नरकंकाल
सिंहासन पर बैठा, उनके
तमगे कौन लगाता है।
कौन-कौन है वह जन-गण-मन-
अधिनायक वह महाबली
डरा हुआ मन बेमन जिसका
बाजा रोज बजाता है।
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मुक्तिबोध की कविता - गजानन माधव मुक्तिबोध | Gajanan Madhav Muktibodh

मैं बना उन्माद री सखि, तू तरल अवसाद
प्रेम - पारावार पीड़ा, तू सुनहली याद
तैल तू तो दीप मै हूँ, सजग मेरे प्राण।
रजनि में जीवन-चिता औ' प्रात मे निर्वाण
शुष्क तिनका तू बनी तो पास ही मैं धूल
आम्र में यदि कोकिला तो पास ही मैं हूल
फल-सा यदि मैं बनूं तो शूल-सी तू पास
विँधुर जीवन के शयन को तू मधुर आवास
सजल मेरे प्राण है री, सजग मेरे प्राण
तू बनी प्राण! मै तो आलि चिर-म्रियमाण।
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क्योंकि सपना है अभी भी - धर्मवीर भारती | Dhramvir Bharti

...क्योंकि सपना है अभी भी
इसलिए तलवार टूटी अश्व घायल
कोहरे डूबी दिशाएं
कौन दुश्मन, कौन अपने लोग, सब कुछ धुंध धूमिल
किन्तु कायम युद्ध का संकल्प है अपना अभी भी

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दो बजनिए | कविता - हरिवंश राय बच्चन | Harivansh Rai Bachchan

"हमारी तो कभी शादी ही न हुई,
न कभी बारात सजी,
न कभी दूल्‍हन आई,
न घर पर बधाई बजी,
हम तो इस जीवन में क्‍वांरे ही रह गए।"
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फूल और काँटा | Phool Aur Kanta - अयोध्या सिंह उपाध्याय 'हरिऔध' | Ayodhya Singh Upadhyaya Hariaudh

हैं जनम लेते जगह में एक ही,
एक ही पौधा उन्हें है पालता।
रात में उन पर चमकता चांद भी,
एक ही सी चांदनी है डालता।।

मेह उन पर है बरसता एक-सा,
एक-सी उन पर हवाएं हैं बहीं।
पर सदा ही यह दिखाता है हमें,
ढंग उनके एक-से होते नहीं।।

छेद कर कांटा किसी की उंगलियां,
फाड़ देता है किसी का वर वसन।
प्यार-डूबी तितलियों का पर कतर,
भौंरें का है बेध देता श्याम तन।।

फूल लेकर तितलियों को गोद में,
भौंरें को अपना अनूठा रस पिला।
निज सुगंधों औ निराले रंग से,
है सदा देता कली जी की खिला।।

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यक्ष प्रश्न - अटल बिहारी वाजपेयी की कविता - अटल बिहारी वाजपेयी | Atal Bihari Vajpayee

जो कल थे,
वे आज नहीं हैं।
जो आज हैं,
वे कल नहीं होंगे।
होने, न होने का क्रम,
इसी तरह चलता रहेगा,
हम हैं, हम रहेंगे,
यह भ्रम भी सदा पलता रहेगा।
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कैदी कविराय की कुंडलिया  - अटल बिहारी वाजपेयी | Atal Bihari Vajpayee

गूंजी हिन्दी विश्व में स्वप्न हुआ साकार,
राष्ट्रसंघ के मंच से हिन्दी का जैकार।
हिन्दी का जैकार हिन्द हिन्दी में बोला,
देख स्वभाषा-प्रेम विश्व अचरज में डोला।
कह कैदी कविराय मेम की माया टूटी,
भारतमाता धन्य स्नेह की सरिता फूटी।।
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ऊँचाई | कविता - अटल बिहारी वाजपेयी | Atal Bihari Vajpayee

ऊँचे पहाड़ पर,
पेड़ नहीं लगते,
पौधे नहीं उगते,
न घास ही जमती है।
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विप्लव-गान | बालकृष्ण शर्मा ‘नवीन’ - बालकृष्ण शर्मा नवीन | Balkrishan Sharma Navin

कवि, कुछ ऐसी तान सुनाओ जिससे उथल-पुथल मच जाये,
एक हिलोर इधर से आये, एक हिलोर उधर से आये,
प्राणों के लाले पड़ जायें त्राहि-त्राहि स्वर नभ में छाये,
नाश और सत्यानाशों का धुआँधार जग में छा जाये,
बरसे आग, जलद जल जाये, भस्मसात् भूधर हो जाये,
पाप-पुण्य सद्-सद् भावों की धूल उड़ उठे दायें-बायें,
नभ का वक्षस्थल फट जाये, तारे टूक-टूक हो जायें,
कवि, कुछ ऐसी तान सुनाओ जिससे उथल-पुथल मच जाये!
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उसने मेरा हाथ देखा | कविता - उपेन्द्रनाथ अश्क | Upendranath Ashk

उसने मेरा हाथ देखा और सिर हिला दिया,
"इतनी भाव प्रवीणता
दुनिया में कैसे रहोगे!
इसपर अधिकार पाओ,
वरना
लगातार दुख दोगे
निरंतर दुख सहोगे!"
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उसे कुछ मिला, नहीं ! - रोहित कुमार 'हैप्पी' | न्यूज़ीलैंड

कूड़े के ढेर से
कुछ चुनते हुए बच्चे को देख
एक चित्रकार ने
करूणामय चित्र बना डाला।
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