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लघुकथाएं |
लघु-कथा, *गागर में सागर* भर देने वाली विधा है। लघुकथा एक साथ लघु भी है, और कथा भी। यह न लघुता को छोड़ सकती है, न कथा को ही। संकलित लघुकथाएं पढ़िए -हिंदी लघुकथाएँ व प्रेमचंद की लघु-कथाएं भी पढ़ें। |
Articles Under this Category |
दो लघु-कथाएँ - बृजेश नीरज |
बंदरआज़ादी के समय देश में हर तरफ दंगे फैले हुए थे। गांधी जी बहुत दुखी थे। उनके दुख के दो कारण थे - एक दंगे, दूसरा उनके तीनों बंदर खो गए थे। बहुत तलाश किया लेकिन वे तीन न जाने कहां गायब हो गए थे। |
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फर्ज | लघुकथा - सुरेन्द्र कुमार अरोड़ा |
"अशरफ मियाँ कहाँ थे आप ?" |
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अनशन | लघु कथा - डॉ. पूरन सिंह |
अन्ना हजारे का भ्रष्टाचार के विरोध में अनशन जारी था। वे और उनकी कम्पनी लोकपाल बिल लाने के लिए सरकार पर दबाव बनाने के लिए जमीन आसमान एक किए दे रहे थे। मुझे उनकी बात ठीक लगी इसीलिए मैं उनसे मिलना चाहता था । विशाल भीड़ में उन तक पहुंचना मुश्किल था । उनके समर्थक ब्लैक कैट कमांडो की तरह उनके आस-पास मंडरा रहे थे । अब एैसे में उनसे कैसे मिला जाए, मैं सोच रहा था। |
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महीने के आख़री दिन - राकेश पांडे |
महीने के आख़री दिन थे। मेरे लिए तो महीने का हर दिन एक सा होता है। कौन सी मुझे तनख़्वाह मिलती है? आई'म नोट एनिवन'स सर्वेंट! (I'm not anyone's servant!) राइटर हूँ।खुद लिखता हूँ और उसी की कमाई ख़ाता हू। अफ़सोस सिर्फ़ इतना है, कमाई होती ही नही। मैने सुना है की ऑस्ट्रेलिया के आदिवासी बूंरंगस (boomerangs) यूज़ करते हैं, शिकार के लिए, जो के फेंकने के बाद वापस आ जाता है। मेरी रचनायें उस बूंरंग को भी शर्मिंदा कर देंगी। इस रफ़्तार से वापस आती हैं। |
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दृष्टि - रोहित कुमार 'हैप्पी' |
रेलवे स्टेशन के बाहर सड़क के किनारे कटोरा लिए एक भिखारी लोगों का ध्यान आकर्षित करने के लिए अपने कटोरे में पड़ी रेज़गारी को हिलाता रहता और साथ-साथ यह गाना भी गाता जाता - |
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यह भी नशा, वह भी नशा | लघुकथा - मुंशी प्रेमचंद | Munshi Premchand |
होली के दिन राय साहब पण्डित घसीटेलाल की बारहदरी में भंग छन रही थी कि सहसा मालूम हुआ, जिलाधीश मिस्टर बुल आ रहे हैं। बुल साहब बहुत ही मिलनसार आदमी थे और अभी हाल ही में विलायत से आये थे। भारतीय रीति-नीति के जिज्ञासु थे, बहुधा मेले-ठेलों में जाते थे। शायद इस विषय पर कोई बड़ी किताब लिख रहे थे। उनकी खबर पाते ही यहाँ बड़ी खलबली मच गयी। सब-के-सब नंग-धड़ंग, मूसरचन्द बने भंग छान रहे थे। कौन जानता था कि इस वक्त साहब आएंगे। फुर-से भागे, कोई ऊपर जा छिपा, कोई घर में भागा, पर बिचारे राय साहब जहाँ के तहाँ निश्चल बैठे रह गये। आधा घण्टे में तो आप काँखकर उठते थे और घण्टे भर में एक कदम रखते थे, इस भगदड़ में कैसे भागते। जब देखा कि अब प्राण बचने का कोई उपाय नहीं है, तो ऐसा मुँह बना लिया मानो वह जान बूझकर इस स्वदेशी ठाट से साहब का स्वागत करने को बैठे हैं। साहब ने बरामदे में आते ही कहा-हलो राय साहब, आज तो आपका होली है? |
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