जिस देश को अपनी भाषा और अपने साहित्य के गौरव का अनुभव नहीं है, वह उन्नत नहीं हो सकता। - देशरत्न डॉ. राजेन्द्रप्रसाद।

एक नफरत कथा | व्यंग्य (विविध)

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Author: शंकर पुणतांबेकर

यह सही है कि ‘हेट्रेड इज ब्लाइंड’, वरना 'ख' में ऐसा कुछ बुरा नही था कि उसे देख 'क' उससे नफरत करने लगता। 'ख' की जाति, वर्ण, दृष्टि, खानपान, बोली, त्योहार भिन्न थे पर बुरे नहीं. या यों कहें कि वे ऐसे ही अच्छे-बुरे थे जैसे क के. फिर भी क ख की नफरत में पड़ गया। 'क' ने उसे एक फंक्शन में देखा जो उसी की जमात का था। यहां 'ख' से 'क' की चार आंखें हुईं और उसकी उससे नफरत हो गयी। यह एक प्रकार से फर्स्ट साइट हेट्रेड थी।

'क' 'ख' की गली में चक्कर मारने लगा। दो-चार बार 'ख' उसे दिखा पर उससे एकदम बात करने की हिम्मत नहीं हुई। जी मसोसकर रह गया। आखिर एक दिन उसने उसे छेड़ा, ‘अबे ए साले’ 'ख' ने उसकी ओर देखा और कोई गुंडा है, समझकर आगे बढ़ गया।

इसके दूसरे या तीसरे दिन 'क' ने उसका रास्ता रोक लिया और कहा, ‘अबे ए कहां जा रहा है?’ 

'कहीं भी, तुम्हें इससे क्या?’ 'ख' ने कहा और उसे धक्का दे आगे बढ़ गया।

'ख' का नफरत-भरा धक्का पा 'क' के बदन में जो आग जगी उससे वह धन्य हो गया। पहले स्पर्श की अनुभूति कुछ और ही होती है।

'क' ने एक दिन 'ख' का पीछा किया। 'क' को अपना पीछा करते देख ख के कदम 'ख' बस से उतरा, वह भी उतर गया। 'क' को अपना पीछा करते देख 'ख' के कदम तेज़ हुए। 'क' के भी तेज़ हुए। 'ख' एक बगीचे में घुस गया। 'क' भी घुस गया।

‘भागो नहीं’, 'क' ने आखिर निर्लज्ज होकर कहा, ‘मैं तुम्हारा आशिक हूं। तुमसे नफरत करता हूं।’ 

‘यह सभ्य आदमी के लक्षण नहीं है,’ एक बेंच पर सिकुड़ते हुए बैठ 'ख' ने कहा, ‘तुम्हें कोई काम-धंधा नहीं है जो ऐसे आशिक बने फिरते हो?’

‘मेरे दुश्मन, तुम्हारी नफरत के पीछे मुझे कोई काम-धंधा नहीं सुहात।’ उसकी बगल में बेंच पर बैठते हुए 'क' ने कहा, ‘तुम नहीं जानते जब से मैंने तुम्हें देखा है, तुमसे ऐसी नफरत हो गयी है कि रात को चैन से नींद भी नहीं आती।’

'ख' और सिकुड़ गया। उसने 'क' को कनखियों से देखा। उसमें ऐसा कुछ नहीं था कि वह उसकी नफरत को स्वीकार करे।

‘बोलो, मेरे दुश्मन कुछ तो बोलो! तुम्हारे साथ गाली-गलौच करने के लिए मेरा जी कितना तड़प रहा है। कहो तो मैं ही शुरू करूं?… बदमाश, गुंडे, हरामखोर…’

'ख' उठकर एकदम भागा। 'क' आह भरकर रह गया।

'क' ने 'ख' को एक दिन बाज़ार में पकड़ लिया और घिसटकर उसे एक चाय की दुकान में ले गया।

‘साले, तुम्हें मुझमें ऐसा कुछ नहीं दिखता कि तुम मुझसे नफरत करो?’ आमने-सामने बैठे चाय पीते हुए 'क' ने 'ख' से कहा, ‘मेरी तुमसे जात अलग है, मेरा तुमसे धरम अलग है। इससे बढ़कर और क्या चाहिए साले किसी से नफरत के लिए?’

'ख' चुप था।

‘तुम साले मुझसे नफरत नहीं करोगे तो मैं तुम्हारी जाति को बुरा कहूंगा। तुम्हारे धरम को गालियां दूंगा। तुम्हारे त्यौहारों-उत्सवों पर पत्थरबाजी करूंगा। पूरी तरह गुंडेबाजी पर उतर आऊंगा तो देखता हूं, तुम मुझसे नफरत कैसे नहीं करते?’

'ख' ने जैसे-तैसे चाय खत्म की और हिम्मत करके बोला, ‘मैं नफरत कैसे करू?’

‘जाति और धरम तो तुम्हारे भी मुझे बुरे नहीं लगते पर तुम्हारे जाति धरम मेरे जाति-धरम से अलग हैं, यही हमारे लिए नफरत को काफी है। तुम मेरे जाति-धरम को गाली दो, मैं तुम्हारे जाति-धरम को गाली दूं, इस बात के लिए मैं कितने दिनों से पागल हूं, तुम नहीं जानते।’

एक दिन सचमुच 'क' ने कुछ गुंडों को साथ ले 'ख' की गली में पत्थरबाजी की। उस दिन कोई त्यौहार था। 'ख' अपने मकान के बाहर आया। उसके सिर को पत्थर की चोट लगी।

‘साले, गुंडे, बदमाश! मैं तुम्हें ज़िंदा नहीं छोडूंगा.’ 'क' को देखकर 'ख' दहाड़ा और अंदर से हॉकी स्टिक ले आया।

‘उस दिन तुम्हारी नफरत पाकर मैं निहाल हो उठा मेरे दुश्मन!’ एक दिन सिनेमा थिएटर पर 'क' 'ख' को देख उससे बोला, ‘इधर कई दिनों से तुम दिखाई नहीं दिये तो मेरा जी कैसा-कैसा हो रहा था! तुम्हारी एक नफरत-भरी निगाह के लिए तरस गया। कहीं बाहर चले गये थे क्या?’

'ख' ने उससे बात नहीं की और हॉल में घुस गया लेकिन 'क' ने उसे छोड़ा नहीं। फिल्म जब खत्म हो गयी तो रास्ते पर क उससे बोला, ‘तुम कन्नी क्यों काटते हो मेरे दुश्मन, जब तुम भी मुझसे नफरत करने लगे हो?’

‘क्या यह अच्छा है कि हम एक-दूसरे से नफरत करें?’ 'ख' बोला, हम एक ही देश के हैं, हम भाई-भाई है। हमारी परम्परा, हमारे राजनेता हमें रोकते हैं नफरत से।’

‘भाड़ में जाये परम्परा और राजनेता। मुहब्बत की तरह नफरत को भी कोई रोक सका है भला! मैं इधर अब हाथापाई के लिए तड़प उठा हूं। कितनी बार सपने में देखा है कि मैं तुम पर सवार हूं, तुम मुझ पर सवार हो। दोनों ओर से लाठियां चल रही हैं।’

'ख' ने कहा, ‘नहीं भाई, इस तरह के हनीमून से लाशें पैदा होती हैं।’

‘होती रहें लाशें पैदा, हमारी बला से। अब जब हम एक-दूसरे से नफरत करते हैं तो उसके अंजाम से क्या डरना! अगले हफ्ते मेरी जात का त्यौहार है, तुम उस दिन पथराव करना। हम भी इधर तुम्हारा मुकाबला करने की तैयारी में रहेंगे। देखना चूकना नहीं।’

उस त्यौहार के दिन पथराव हुआ, स्टिकें चलीं, बोतलें चलीं, पुलिस आयी। दोनों ओर लाशें बिछीं।

'क' को संतोष था कि अब मेरी नफरत इकतरफा नहीं रही। 

--शंकर पुणतांबेकर

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