जिस देश को अपनी भाषा और अपने साहित्य के गौरव का अनुभव नहीं है, वह उन्नत नहीं हो सकता। - देशरत्न डॉ. राजेन्द्रप्रसाद।

पीड़ा का वरदान (काव्य)

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Author: विष्णुदत्त 'विकल

क्यों जग के वाक्-प्रहारों से हम तज दें अपनी राह प्रिये! 

जीवन बहता है जिस प्रवाह बस उस प्रवाह बह लेने दो, 
दुनिया हम को पागल कहती, सुन लो, उस को कह लेने दो, 
क्या उचित और क्या है अनुचित, किस को इस का है ज्ञान यहाँ 
हम पागल हैं या जग पागल, कर सका कौन पहचान यहाँ? 

उलझनों भरी इस दुनिया में मुश्किल है पाना थाह प्रिये!
क्यों जग के वाक्-प्रहारों से हम तज दें अपनी राह प्रिये!

कुचला जाता है पद-पद पर, धोके से लेकर प्यार यहाँ, 
इन्सानों से हैवानों सा दुनिया करती व्यवहार यहाँ, 
सब कुछ अर्पण कर देना भी अपनी ही तो थी भूल यहाँ, 
फूलों के बदले इस कारण हम को मिलते हैं शूल यहाँ, 

फिर भी गाओ, गा लेने दो, क्यों भरें यहाँ हम आह प्रिये?
क्यों जग के वाक-प्रहारों से हम तज दें अपनी राह प्रिये!

हो घायल उर तब भी अधरों पर खिली रहे मुस्कान यहाँ, 
सिर पर उपलों का हो वर्षण हम कभी न होवें म्लान यहाँ, 
हम ने खुद जीवन में चाहा पीड़ा का ही वरदान मिले, 
कुछ टीस मिले, कुछ दर्द मिले, मर मिटने का अरमान मिले, 

जब शेष हमारे जीवन में कुछ और नहीं है चाह प्रिये!
क्यों जग के वाकू प्रहारों से हम तज दें अपनी राह प्रिये!

-विष्णुदत्त 'विकल

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