जिस देश को अपनी भाषा और अपने साहित्य के गौरव का अनुभव नहीं है, वह उन्नत नहीं हो सकता। - देशरत्न डॉ. राजेन्द्रप्रसाद।

आँखें खुलीं (कथा-कहानी)

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Author: कमला देवी चौधरी

हिन्दू-समाज। एक भाईं, तीन बहनें। हर एक का दहेज पाँच हजार। पूरे पन्द्रह हजार! सुधा बड़ी है तो क्या, कन्या जो ठहरी! मनोहर पुत्र है--दस हज़ार की हुंडी। फिर मनोहर का लाड-प्यार क्यों न हो? और चुन्नी के लिए? उपेक्षा।

नौचन्दी का मेला। सुन्दर-सुन्दर खिलौने, गुड़िया, गुड़ियों के छोटे-छोटे बर्तन--कढ़ाई, करछुली, चूल्हा, चकिया। मोटर, रेलगाड़ी। हरी-लाल मिठाइयाँ। हवा में उड़ने वाले गुब्बारे।

'भइया बाबूजी के साथ गया है। सारी ही चीजें तो लायेगा। मैं-मुझे कुछ भी नहीं। खेल भी न सकूँगी। भइया छूने कब देगा? बाबूजी मारेंगे।'

'अम्मा एक दिन मेला देखने जायेंगी। मैं भी जाऊँगी। सारे मेले में एक ही दिन न? दो पैसे की मिट्टी की गिरस्ती ले देंगी। बाबूजी की जेब पैसों से भरी रहती है। दूकान से ढेर-भर पैसे लाते हैं। भड्या जो कहता है, ले देते हैं। अम्मा के पास पैसे कहाँ हैं?'

(2)

-'सुधा मेला देखने चल, पर किसी चीज़ के लिए रोई तो घर आकर पिटेगी।'

सुधा का नन्हा-सा हृदय सहम गया। मेला देखने का लोभ न छूटा।

मोहल्ले की सारी-की-सारी लड़कियाँ रोज़ मेला देखने जाती हैं। कैसी अच्छी-अच्छी बातें सुनाती हैं। खिलौनों की दूकानें हैं। फूले लगे हैं। एक पैसा दे दो, फूले वाला फुला देता है। कटा सर बोलता है। हाँ, सर कट गया है, लड़की ज़िन्दा है! शान्ति यही तो कह रही थी।

सुधा खिलौने लेने में किसी की बराबरी नहीं कर सकती, तो क्या मेला भी न देखेगी? सहेलियाँ उससे क्या कहेंगी! अचरज मानेंगी। उसे जो मुँह छिपाना पड़ेगा। मेला तो ज़रूर देखेगी।

अपने बाबूजी की उँगली पकड़े सुधा घसिटती चली जा रही थी। जापानी खिलौनों की दूकान। उसका मन चलने लगा। दूकानवाला बुड्ढा, वही दाढ़ी वाला! कैसा अच्छा है।

सुधा के मन की बात वह कैसे जान गया?

बोला--'बाबूजी, लड़की को मोटर पसन्द है-- लो बेटी।'

हाथ से छीनकर बाबूजी ने मोटर जहाँ की तहाँ रख दी। बोले-'फिर ले देंगे।'

कोमल हृदय, बच्चे का मन है। ओठ काँपे, नाक फूली, इतनी चोट काफी आँसू चमके, डर के मारे आँखों में ही निगल गई। घर जाकर पिटने का डर। पर 'मोटर बड़ी अच्छी है!'

माँ ने घर में ही चलते वक्त कह दिया था--'ज़िद न करना, तेरे बाबूजी नाराज होंगे; फिर तुझे कभी न ले जायेंगे, मेरा भी जाना बन्द हो जाएगा।'

बच्चे का मन। मार भी भूल जाता है, डर भी याद नहीं रहता।

--'मैं तो मोटर लूँगी। मोटर! अम्मा मोटर ले दो।--बाबूजी…'

(3)

घर आकर दुखियाने रोटी भी न खाई। खाई घुड़कियाँ और डाँट। मोटर फिर भी न भूली। मोटर ले आती, तो गुड़ियों को बिठाती। शान्ति से कहती--'मैं भी मोटर लाई हूँ।' दया से कहती--'तेरी रेलगाड़ी किस काम की देख मेरी मोटर।' पर कहती कहाँ से ! माँ ज़रा कह देती तो। बाबूजी तो गुस्सा हो गये । माँ ने कहा--'तू रोई क्यों मेले में सबके सामने। रोती न तो शायद आज ला देते। अब न लायेंगे।'

-'कभी नहीं लायेंगे! कभी नहीं!"

मुँह फुला लिया। मन में आई अम्मा से अड्डी कर दे।

दादी बोली--'चुड़ैलका गुस्सा तो देखो, हर बात में भइया की नकल!'

माँ की आँखें छलछला आई।

सुधा सिसकने लगी। माँ बेटी को गोद में पाकर और बेटी माँ की गोद पाकर सब भूल गई। बिटिया सो गई।

(4)

सुधा फूली नहीं समाती--'सान्ती देख मेरी मोटर! मौसीने ले दी है। घर चल, तो और भी दिखाऊँ- गुब्बारे, सोने-जगने वाली गुड़िया, पिटारी-भर गुड़िया के बर्तन। बहुत सारी चीजें हमारी मौसी ऐसी अच्छी है! गोटे की साड़ी भी ले दी है। देख आ चलके, तेरी साड़ी से भी अच्छी!'

पतले ओठों पर भीनी मुस्कुराहट, आँखों में बाल-सुलभ सरलता, खुशी की चमक।

-- 'मैं तो मौसीके साथ उसके घर जाऊँगी। मौसी की एक बिटिया है, सरोज। पढ़ती है। भइया की-सी उसके पास बहुत-सी किताब हैं--सिलेट पेन्सिल। उसके बाबूजी खूब प्यार करते हैं!'

-- 'मेरी भी मौसी खूब प्यार करती है!'

--'मैं तो पढ़ूँगी, सरोज के मास्टर से। फिर बाबूजी, और सब-कोई, मुझे खूब प्यार करेंगे।'

(5)

मौसी का घर। मौसी खूब प्यार करती है; पर अम्मा की याद आती है। किसी से कहती नहीं। मौसी कहीं भेज न दे! वहाँ फिर भइया की होड़ कैसे करेगी! अम्मा की याद के मारे आँखों में आँसू आते हैं, आँखें मल डालती है। मौसी जान गई तो? एक दिन मौसी ने देख लिया, पूछ बैठीं--'आँख में

क्या हो गया, लाल क्यों है?’

सुधा चुप।

मौसी ने साड़ी का पल्ला फूंककर आँखें सेक दीं। सब कहते हैं--'कैसी लड़की है, तोताचश्म! एक दिन भी किसी की याद नहीं की! माँ रोती होगी।'

सुधा का जी चाहता है, कह दे।

(6)

सुधा बीमार है। एक सौ चार डिगरी बुखार। टायफाइड।

मौसी बोली--'बिटिया, तार देकर तेरी अम्मा को बुला दूँ!'

होश कहाँ जो बोले! ज़रा सी आँखें खोलीं, फिर मींच लीं।

दूसरे दिन सबेरे बुखार घटा। मौसी ने पूछा--'अम्मा को बुला दूँ?'

कहीं बाबूजी आकर गुस्सा न हों। कहेंगे--'तूने तो कहा था, आने के लिए जिद न करूँगी।' बाबूजी ने तो पहले से ही कह दिया था--'किसी को हैरान किया, तो फिर कभी न जाने पाएगी।'

'फिर बाबूजी कभी न भेजेंगे। पढ़ेंगी कैसे?’

दिन चढ़ता गया- बुखार भी बढ़ता गया। सुधा की सबेरे की चिन्ता शाम तक बिलकुल दूर हो गई। मौसा ने थर्मामीटर लगाया 103 डिग्री! झपकी-बेहोशी।

कई दिन बाद आँखे खुलीं। अम्मा की गोद में चिपटकर रोई, खूब रोई। माँ-बेटी दोनों हृदय रोये। तीसरा हृदय भी पिघला। पिता का हृदय ठहरा। गला भर आया। मुँह से आवाज़ न निकली। सुधा के बाबूजी कुर्सी से उठकर बाहर बरामदे में चले गये। उनसे रहा न गया। रेलिंग पर कुहनी टेककर रूमालसे आँसू पोंछने लगे। पश्चात्ताप के आँसू थे, रोके न रुके। पिता होकर अपनी ही सन्तान-- पुत्र और कन्यामें  इतना भेद-भाव! अपने-आपको धिक्कारने लगे।आँखें खुल गई। सुधा ने देख लिया। चिल्लाई 'बाबूजी!'

भर्राई हुई आवाज में--'हाँ, बिटिया!' बाबू जी के भीतर आते-आते सहसा सुधा की आँखें बन्द हो गईं, जर्द चेहरा और भी ज़र्द पड़ गया। माँ चीख उठी। सब घबरा गये--'यह क्या हुआ!'

[1934]

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